आलोक बर्नवाल
संतकबीरनगर। मानव जीवन के इतिहास में सबसे बड़ी परीक्षा कोरोना संकट बना हुआ है। जिसे अब लोगो को पास करना ही होगा। मानव जीवन को एक संकट की घड़ी में कोरोना ने पंहुचा दिया है। जिसके कारण सम्पूर्ण देश लॉक डाउन की परिस्थितियों से गुजर रहा है। हर क्षेत्र में लोगो ने जागरूक होकर अपनी सुरक्षा को बढ़ा रहे है। आज के वर्तमान में अनेको जगहों पर देखा गया कि एक गली को वहां रहवासियों ने खुद से सील कर दिया। अगर प्रोपगंडा यूनिवर्सिटी के विषय- वस्तु से भरे मस्तिष्क से परे मौजूदा परिस्थिति के यथार्थ को समझें तो यह मानव जीवन के मौलिक अनुभवों से साक्षात्कार रूपी परीक्षा की सबसे बड़ी घड़ी है। एक ओर यह मानव प्रगति के इतिहास के क्रमिक विकास और इसके विभिन्न प्रभावों के बारे में गहनता से सोचने पर मजबूर करती है तो दूसरी ओर उन मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना की जरुरत को अनिवार्य बनाने की सहज चेष्टा करती है जो आज के समय में लुप्तप्राय सी हो गयी हैं। आखिर मानव प्रगति की कोई तो सीमा होगी? क्या ऐसा नहीं है कि प्रगति के मौलिक मतलब को हम समझें बिना ही प्रगति कर रहें है? जीवन मे गहराई से विचारने पर एक अनंत अंधकार सा दिखलाई पड़ने वाला दृश्य अंतर्मन में एक शून्य का भाव भर देता है। इतनी असहजता, बेबसी, लाचारी, व्याकुलता, खालीपन, अकेलापन, उलझन मनुष्य जाति ने कई वर्षों से महसूस नहीं किया होगा। वह भी भौतिक दृष्टि से हर तरह की सम्पन्नता होने के बावजूद। यहाँ तक कि बच्चें जिनके लिए ‘स्कूल’ दंडशाला हुआ करती है, उन सभी को भी स्कूल की कमी खल रही है। उनका खेलना, दोस्तों से झगड़ना, हंसी-मजाक करना, एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतियोगिता करना, अपने दोस्तों का महज परेशान करने के लिए टीचर्स से शिकायत करना, नक़ल करना, किसी की मिमिक्री कर पूरे क्लास को हँसाना, सब कुछ एक साथ रुक गया। सिर्फ बच्चों की नहीं बड़ों की भी, सिर्फ बड़ों की नहीं बहुत बड़ों की भी, जिनके पास पैसा है, रुतबा है, शक्ति है, पहुँच है, वर्चस्व है, विरासत है सबकी जिंदगी थम सी गयी है सबको एक साथ मौलिक एवं चिरस्थायी मानवीय मूल्यों का बोध होने लगा है- प्रेम, प्रीति, सद्भाव और इर्ष्या, घृणा, वर्चस्व, विरासत, रुतबा, अहंकार, शक्ति, प्रभुता के अस्थायी तत्व प्रभावहीन होने लगे हैं। राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक एवं निजी कुंठाओं से मुक्त जिंदगी के सही मायने को व्यक्ति अपनी समझ के स्तर पर समझने की कोशिश कर रहा है। किंतु इन सबके साथ साथ यह भी सत्य है कि यथार्थ अनुभूति की धारा के प्रवाह को अवरुद्ध मिथ्या विचारों और मूल्यहीन दर्शन को प्रश्रय देने का प्रयास भी अधिनायकवादियों द्वारा लगातार जारी है। लोगों की दृष्टि एक नहीं होती और हो भी नहीं सकती परस्पर एक दूसरे के दृष्टिकोण से देखना एवं विचार करना कठिन होता है। इसी में अधिनायकवादी अपने निजी स्वार्थ को जन अनिवार्यता के रूप में पेश कर मिथ्या को यथार्थ बना देते है। हमें इस तिकड़म से सावधान रहने की जरुरत है। भौतिक विकास को मानव ने अपना सम्पूर्ण विकास मान लिया था। लेकिन एक कोरोना संकट ने आज मानव मूल्यों के विकास को धता बता दिया। जिसने आम जीवन को पूरीतरह से लॉक कर दिया है।
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