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पत्रकारिता के सफर में बाजारवाद




लेख :भरोसा, विश्वसनीयता.......ये शब्द पत्रकारिता के मेरूदण्ड हैं। पर सारी नियामत को एक ही झटके में हासिल कर लेने की लालसा ने पत्रकारिता की परिभाषा को ही मानो बदलने की कुचेष्टा की है। ‘सोद्देश्य’ बनाम ‘निशाना पत्रकारिता’, ‘धारदार’ बनाम ‘चकाचौंध’ से लबरेज पत्रकारिता के बीच छिड़ी जंग तेज होती जा रही है। पर, वास्तवितकता के धरातल पर साफ है कि पहले मिशन, फिर ‘प्रोफेशन’ और आहिस्ता-आहिस्ता उस पर हावी सम्पूर्ण बाजारवाद ने भ्रम का कुहासा फैला दिया है। साथ ही, जिस भरोसे को लोकतंत्र के चौथे खम्भे की संज्ञा दी गयी थी, उसमें दरार भी पड़ने लगी। पत्रकारिता जगत के आवरण को एक रूपहले संसार के मायामोह ने जकड़ लिया है। बस, यही वह आवरण है, जो भारत की लगभग 300 साल पुरानी पत्रकारिता के इतिहास को खुर्द-बुर्द करता नजर आ रहा है।



प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी ने कहा था, ‘‘जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।’’ यह सही भी था। कारण, सोद्देश्य पत्रकारिता में ही वह धार थी, जिसने अंग्रेजी हुकूमत से लेकर स्वाधीन भारत में भी सत्ता की चूलें हिलायीं। पर, धीरे-धीरे इस ध्येयवादी पत्रकारिता पर ग्रहण लगता गया। भारतीय पत्रकारिता के पुरोधा बाबूराव विष्णु पराड़कर ने तो आने वाले समय को अपनी दूर दृष्टि से 1925 में ही देख लिया था। उन्होंने उस समय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद से दिए गए सम्बोधन में ही कह दिया था कि-‘एक समय आयेगा, जब हिन्दी पत्र रोटरी पर छपेंगे। सम्पादकों को ऊंची तन्ख्वाहें मिलेंगी। 


सब कुछ होगा, किन्तु उनकी आत्मा मर जायेगी। सम्पादक, सम्पादक न होकर मालिक का नौकर होगा। अखबारों पर पूरी तरह बाजारवाद हावी होगा।’

स्वतंत्रता आन्दोलन को अपनी कलम से तेज़ धार देने वाले पराड़कर जी की वह बात आज सौ फीसदी सही साबित हो रही है। उन्होंने उस वक्त ही पत्रकारिता के भविष्य को भांप लिया था। पत्रकारिता की शुरूआत मिशन से हुई थी जिसने आजादी के बाद धीरे-धीरे ‘प्रोफेशन’ का रूप ले लिया और अब इसमें ‘कामर्शियलाइजेशन’ का दौर चल रहा है। 


     स्वतंत्रता आन्दोलन की सफलता में पत्रकारिता की अहम भूमिका रही। उस समय पत्रकारिता को मिशन के तौर पर लिया जाता था। भारत में तो पत्रकारिता की नींव रखने वाले भी एक अंग्रेज ही थे। भारत में सबसे पहला समाचार पत्र ‘जेम्स अगस्टस’ हिक्की ने सन् 1780 में बंगाल गजट के नाम से निकाला था। अंग्रेज होते हुए भी उन्होंने ब्रिटिश शासन की इतनी आलोचना की थी कि गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने उन्हें दी गयी डाक सेवायें बंद कर दी थीं। हिक्की को जेल में डाल दिया गया था और उन पर जुर्माना भी ठोंका गया था। लेकिन उन्होंने जेल में भी अपनी कलम की पैनी धार में कमी नहीं आने दी थी। उन्होंने अपना उद्देश्य घोषित किया था-‘अपने मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिए अपने शरीर को बंधन में डालने में मुझे मजा आता है।’ सन् 1816 में गंगाधर भट्टाचार्या ने बंगाल गजट का पुनः प्रकाशन शुरू किया। राजा राम मोहन राय ने भी सर्वप्रथम पत्रकारिता के माध्यम से ही समाज सुधार अभियान छेड़ा था। हिन्दी भाषा में पहला अखबार निकालने का श्रेय पंडित जुगल किशोर शुक्ल को जाता है।

 उन्होंने सन् 1826 में ‘उदन्त मार्तण्ड’ पत्र निकाला और अंग्रेजी हुकूमत की जमकर मुखालफत की थी। उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रवाद की मशाल को और तीव्र किया था। जंग-ए-आजादी के दौर में इस तरह की कई पत्र-पत्रिकायें प्रकाशित हुईं। इन सबका प्रकाशन सोद्देश्य था। इनमें अमृत बाजार पत्रिका, इण्डियन घोष, द ट्रिब्यून, पायनियर, द हिन्दू आदि प्रमुख थे। इसी प्रकार हिन्दी अखबारों में हरिजन, नवजीवन, नवभारत, हरिजन सेवक, हरिजन बंधु, यंग इण्डिया आदि की अहम भूमिका थी। गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से प्रताप नामक पत्र निकाला और अंग्रेजी शासन में कंपकपी पैदा कर दी थी।
अब आते हैं आजादी के बाद के दौर में। स्वतंत्रता का ध्येय पूरा हो चुका था। सब अपने ही सामने थे। रेडियो और टेलीविजन पत्रकारिता की डुगडुगी पिट चुकी थी। यहीं से मिशन के ‘प्रोफेशन’ में बदलने के दौर का आगाज हो चुका था। जैसे-जैसे अखबारों में पगार बढ़ी, वैसे-वैसे विज्ञापन बढ़े और बाजारवाद हावी होता गया। महात्मा गांधी ने पत्रकारिता और पत्रकार के कर्तव्यों के बारे में लिखा था-‘मैं महसूस करता हूं कि पत्रकारिता का केवल एक ध्येय होता है और वह है सेवा। समाचार पत्र की पत्रकारिता बहुत क्षमतावान है, लेकिन यह उस पानी के समान है, जो बांध के टूटने पर पूरे देश को अपनी चपेट में ले लेता है और समस्त फसल को नष्ट कर देता है।’ उन्होंने यह भी कहा था कि पत्रकारिता का गलत प्रयोग एक अपराध है। पर आज यह अपराध बार-बार किया जा रहा है।


सन् 1975 में अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा गया, पर श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल में भी कई अखबारों में अपने-अपने ढंग से विरोध प्रदर्शित किया था। आपातकाल के बाद पत्रकारिता की धार फिर तेज हुयी, लेकिन ज्यादा दिनों तक यह पैनापन कायम न रह सका। बाद में इसी संदर्भ में भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवानी ने कहा भी था कि हमसे झुकने के लिए कहा गया तो हम रेंगने लगे।


वर्तमान में पत्रकारिता का व्यवसायीकरण के प्रति लगाव देखते ही बनता है। आज के दौर में धन्ना सेठों की समझ में भी आ गया है कि पत्रकारिता के नाम पर वह समाज में एक अलग तरह का सम्मान हासिल कर सकते हैं। साथ ही इसकी आड़ में गलत को सही साबित किया जा सकता है, सो इस वर्ग ने पत्रकारिता का इस्तेमाल ‘बुलडाॅग’ के रूप में किया। बस फिर क्या था। शुरू हो गया घालमेल। पेड न्यूज का प्रचलन शुरू हो गया। साथ ही होने लगी भरोसे की हत्या। इसी के साथ शुरू हुआ चकाचौंध और ग्लैमर से भरी पत्रकारिता का दौर। 24 घंटे वाले न्यूज चैनल ‘कंटेंट’ कहां से लाएं, सो उन्होंने ‘डब्बू अंकल डांस’, सांप-नेवले की लड़ाई और नचनियों की मटकती कमर के तड़के को न्यूज बनाकर परोसना शुरू कर दिया। इधर पत्रकारिता सिखाने वाले संस्थानों की भरमार हो गयी। मिशन तो रहा नहीं, इसलिए ग्लैमर और एक झटके में हनक की चाहत संजोए नौजवान मोटी-मोटी फीस अदा कर इन संस्थानों से डिप्लोमा/डिग्री हासिल करने लगे। पर बाहर आते ही इन्हें तब गहरा झटका लगता है जब जमीनी और व्यावहारिक ज्ञान के अभाव में उन्हें दूर दिख रही उनकी मंजिल कांटों भरा ताज नजर आती है।


आज पत्रकारिता को लेकर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं। रिपोर्टिंग के स्तर में तेजी से गिरावट आयी है। इसमें सोशल मीडिया ने कोढ़ में खाज का काम किया है। कारपोरेट मीडिया के सत्य के प्रति बढ़ते अलगाव और असत्य को प्रमाण के साथ पेश करने के उदाहरण आए दिन देखने को मिलते हैं। आज सवाल यह खड़ा हो गया है कि पत्रकारिता के भविष्य का फैसला सत्य या मुनाफे में से क्या होगा। देश में कारपोरेट मीडिया के एक धड़े ने जिस अंधभक्ति के साथ नव उदारवाद की पैरवी की है, गरीबों को सब्सिडी दिए जाने का विरोध किया है और सेज के बहाने किसानों की जमीन के अधिग्रहण का अंध समर्थन किया है। उससे कारपोरेट मीडिया की गरीब और आमजन विरोधी छवि भी उभरी है। सुनियोजित षड्यंत्र के तहत मतदाता और लोकतंत्र के स्वरूप का निर्माता कहा जाने वाला वर्ग भेड़ के झुंड के समान हो चला है। जनप्रतिनिधि, मीडिया और नौकरशाह इस झुंड को अपने-अपने तरीके से प्रभावित कर ‘हरहा’ बनाने की फिराक में हैं। यह सब कुछ हो रहा है धनोपार्जन के लिए। हालत यह हुई कि कड़े संघर्ष से स्वाधीन हुए भारत में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाने वाली पत्रकारिता आसानी से विचलित हो गयी। वैसे तो यह विचलन सभी क्षेत्रों में है, लेकिन पत्रकारिता की ही खूबी है कि वह इस विचलन को स्वीकारती भी है। उस पर मंथन भी करती है। ऐसा इसलिए है कि उसमें अपने अतीत के सुनहरे पन्नों को फिर जगमगाने की छटपटाहट है। उम्मीद है कि यही छटपटाहट पत्रकारिता खासकर हिंदी पत्रकारिता को फिर एक उत्प्रेरक आवाज और अनुगामी पथ दिखाने में सफल होगी.....!



प्रस्तुति
ए. आर. उस्मानी
   वरिष्ठ पत्रकार
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