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महबूब मीनाशाह ने अंग्रेजों के छुड़ा दिए थे छक्के

फाइल फोटो: हजरत महबूब मीना शाह


स्वतंत्रता आंदोलन को धार देने पर साथियों के साथ भेजे गए थे जेल

1967 में मानवसेवा की प्रेरणा से अभिभूत हो अध्यात्म में हो थे लीन

ए. आर. उस्मानी

गोण्डा। एक ताल्लुकदार के घर में जन्मे महबूब मीना शाह ने द्वितीय विश्व युद्ध में भी हिस्सा लिया था। उनकी बेसिक शिक्षा लखनऊ के हुसैनाबाद इंटर कॉलेज से हुई और इंटरमीडिएट कराची के एचएमआईएस बहादुर कॉलेज से किया। उन्होंने आगे की शिक्षा मुस्लिम यूनिवर्सिटी से प्राप्त की। महज 10 साल की उम्र में भारतीय जल सेना में चयन हो गया जिसमें बाबाजी का नाम अजीज हसन था।


    वर्ष 1944 से 1946 तक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद द्वितीय विश्व युद्ध में हिस्सा लेने के लिए भारत की ओर से सिंगापुर भेजा गया। अंग्रेजों के खिलाफ मुंबई में भारत छोड़ो आंदोलन में सहभागिता की। स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अंग्रेज अधिकारियों के आदेशों की अवहेलना की, जिससे अंग्रेजी सेना ने करीब 11 साथियों के साथ गिरफ्तार किया और कराची की जेल में भेज दिया। उसके बाद कोर्ट मार्शल भी किया गया। मई 1947 को जब पाकिस्तान का नामकरण हुआ, उसके बाद पारिवारिक निर्णय के अनुसार न्योतनी जिला उन्नाव में तालुकदारी का दायित्व संभाला और उसके पश्चात मुंबई गए। 14-15 वर्षों तक मुंबई की चकाचौंध चमक में रहने के बाद इस भौतिकवाद से उबर कर अध्यात्म की ओर रुझान बढ़ा। एक सच्चे गुरु की तलाश में भटकते हुए अध्यात्म के क्षेत्र में ख्याति लब्ध गुरु हजरत इकराम मीना शाह से संपर्क हुआ। उनकी नजरों ने कुछ ऐसा असर किया कि पूरा जीवन सिर्फ उन्हीं का होकर रह गये। उनकी शिक्षाओं तथा मानव सेवा की प्रेरणा ने कुछ ऐसा प्रभाव किया कि वे अपना सब कुछ, सारे सुख त्याग कर वर्ष 1967 से अध्यात्म में लीन हो गए। उन्होंने मीनाशाह इंस्टीट्यूट की बुनियाद रखने के साथ साथ शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक काम किए जो देवीपाटन मंडल के साथ ही पूर्वांचल में मील का पत्थर साबित हुए। महबूब मीना शाह मानव रहित बियाबान में गुरु के आदेश पर कुटिया बनाकर बस गये, तब से आज तक यह सिलसिला जारी रहा। आज उन्होंने अंतिम सांस ली।




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