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मोहर्रम पर कोरोना का साया, पिछले 2 साल से टूट रही 200 साल पुरानी परंपरा

 

अलीम खान 

अमेठी : सरकार की बंदिशों के बीच इस बार भी पहले की तरह सड़कों पर जुलूस नहीं निकला। कोरोना प्रोटोकाल के चलते सरकार ने जुलूसों पर पाबंदी लगा दी है। सोगवारों ने अपने-अपने घरों पर ही मातम किया और नौहे पढ़े। पिछले दो साल से मोहर्रम पर कोरोना का साया है। जिसके चलते सड़कों पर सोगवारों द्वारा जंजीरों से मातम करते जुलूस नहीं दिखाई दे रहे हैं। बता दें कि अमेठी के भनौली गांव में मोहर्रम में जुलूस निकालने की परंपरा सैकड़ों साल पुरानी है। मोहर्रम पर पिछले 200 सालों से जुलूस निकालने की परंपरा गांव में बराबर चली आ रही है। लेकिन साल 2020 में कोरोना संक्रमण के चलते इस परंपरा पर ब्रेक लग गया था, जो इसबार भी जारी रहा।


भनौली गांव में 1 मोहर्रम से लेकर 10 मोहर्रम तक मजलिसों का सिलसिला जारी रहता था। 5 मोहर्रम से जुलूसों का सिलसिला शुरू हो जाता था जो 10 को ताज़िया के साथ कर्बला जाता था। इस परंपरा का आयोजन आजादी से भी पहले भी होता रहा है। यहां जुलूस निकाले जाने पर कभी कोई रोक नहीं लगी थी। गांव में बड़े इमामबारगाह से हर साल मोहर्रम की दसवीं को ताबूत बरामद होता था। युवा पत्रकार कुमैल रिज़वी ने बताया कि बुज़ुर्ग बताते हैं कि पिछले दो साल से ऐसा हो गया जब सैकड़ों साल पुरानी परंपरा टूट गई है। इस बार भी न कर्बला तक जुलूस गया और न ही ज़ंजीर का मातम हुआ। उन्होंने बताया कि मोहर्रम की दसवीं को भनौली में जुलूस बड़े इमामबाड़े से निकलकर जामा मस्जिद इमामबाग जाता है। फिर वहां से वापस बड़े व छोटे इमामबाड़े के रास्ते दरगाह होते हुए कर्बला को जाता था और इमाम हुसैन के दुनिया को इंसानियत का पैगाम को बताया जाता था।


कुमैल रिज़वी कहते हैं कि सरकार ने जो गाइडलाइन जारी की हमने उसको ध्यान में रखते हुए अज़ादारी की। इमाम हुसैन ने दुनिया को इंसानियत का पैगाम दिया था और कहा कि अपने वतन से मोहब्बत करो। मुहर्रम आतंकवाद के खिलाफ आंदोलन का नाम है। जिसे इमाम हुसैन ने कर्बला इराक में यजीद के खिलाफ किया। उन्होंने अपने परिवार समेत 72 शहीदों की कुर्बानी पेश की थी।

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