ए. आर. उस्मानी
गोण्डा। कर्बला की जंग में हजरत इमाम हुसैन के कुनबे के 72 लोगों की शहादत की याद में मनाया जाने वाला यौमे गम जिले के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। पहली मुहर्रम से गलियों में ढोल, ताशे व नगाड़े का शोर पूरी रात गूंजता है। मुहर्रम के दौरान पाकिस्तान, सऊदी, यमन, ईरान व पश्चिमी देशों में रह रहे भारतीय मूल के निवासी वापस आते हैं।
पांचवी मुहर्रम की रात से जुलूस व मजलिसों का दौर शुरू हो जाता है। चालीस दिनों तक गम मनाने की परंपरा भी अलग है। शिया समुदाय की महिलाएं मुहर्रम से चेहल्लुम तक साज-श्रृंगार छोड़ देती हैं। मुस्लिम परिवारों में नए काम, शादी विवाह नहीं किए जाते हैं। नगर क्षेत्र में मुहर्रम की नौवीं तारीख को हजरत इमाम हुसैन की याद में युवा व किशोर नंगे पांव दहकते अंगारों पर चलकर खिराजे अकीदत पेश करते हैं। दसवीं मुहर्रम को नगर व ग्रामीण क्षेत्रों में यौमे अशूरा का जुलूस निकाला जाता है। जुलूस में छप्पन छुरियां व जंजीरी मातम देख लोग दांतों तले उंगुली दबा लेते हैं।
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