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मनरेगा योजना से क्यों दूर हो रहे हैं मजदूर?



उमेश तिवारी

ग्रामीण विकास विभाग की अति महत्वाकांक्षी समझी जाने वाली योजना ‘महात्मा गांधी राष्टीय रोजगार गारंटी अधिनियम’ (मनरेगा) में आई कई विसंगतियों के कारण आज मजदूरों में इसके प्रति रुचि नहीं रह गई है। जिसके कारण मनरेगा की योजनाओं में काम करने वाले मजदूरों की संख्या घटती चली गयी है। पहले जहां झारखंड में प्रतिदिन 8 लाख मजदूर काम कर रहे थे, अब वह घटकर 3.5 लाख तक सिमट गये हैं।


जब हम मनरेगा की चर्चा करते हैं तो सबसे पहले यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि मनरेगा की अवधारणा क्यों तैयार की गई? नरेगा यानी राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी योजना को 7 सितंबर 2005 को विधान द्वारा अधिनियमित किया गया और 2 अक्टूबर 2005 को पारित किया गया।


इस योजना को 2 फरवरी 2006 को 200 जिलों में शुरू किया गया था, जिसे 2007-2008 में अन्य 130 जिलों में विस्तारित किया गया और 1 अप्रैल 2008 तक भारत के सभी 593 जिलों में इसे लागू कर दिया गया। इसकी शुरुआत सबसे पहले आंध्र प्रदेश के बांदावाली जिले के अनंतपुर गांव में हुई।


इस योजना के तहत हर साल किसी भी ग्रामीण परिवार के वयस्क सदस्यों को 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराने की गारंटी की गई है। 31 दिसंबर 2009 को इस योजना का नाम बदल कर इसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी योजना (मनरेगा) कर दिया गया। 


बता दें कि केंद्र की मोदी सरकार द्वारा पिछले कई वर्षों से मनरेगा मजदूरी दर में जिस तरह से छोटी सी बढ़ोतरी की गई है, वह इस बात का सबूत है कि मोदी सरकार मनरेगा को धीरे-धीरे खत्म करने की ओर बढ़ रही है। वहीं दूसरी तरफ ऐतिहासिक कहा जाने वाला यह मनरेगा कानून भ्रष्टाचार का केंद्र बनता जा रहा है। जिससे मनरेगा की अवधारणा और पारदर्शिता समाप्त होने की कगार पर है।


कहने को तो मनरेगा साल में 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराती है, मगर इस योजना का जो दूसरा पक्ष है वह ग्रामीण व अकुशल मजदूरों लिए मज़ाक से कम नहीं है।


गौर करने वाला तथ्य यह है कि इस योजना में 100 दिन के रोजगार की गारंटी में केवल एक परिवार शामिल होता है, एक व्यक्ति नहीं। चाहे उस परिवार में जितने भी व्यस्क सदस्य हों, उन सबको मिलाकर 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराया जाता है। यानी अगर परिवार में चार व्यस्क सदस्य हैं तो एक व्यक्ति को साल में 25 दिन का रोजगार उपलब्ध होता है।


ऐसे में केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित मात्र 210 रुपये और झारखंड राज्य सरकार द्वारा अंशदान 27 रुपये अतिरिक्त देकर 237 रुपये मजदूरी दी जा रही है।


मतलब अगर परिवार के चारों व्यस्क सदस्य साल में 100 दिन काम करते हैं तो उन्हें कुल भुगतान 100×237=23,700 रुपये का होता है, यानी एक व्यक्ति को एक साल में कुल 5,925 रुपये मजदूरी मिलती है। अगर परिवार में अवयस्क सदस्यों की संख्या 4 भी मान ली जाए तो एक साल में प्रति सदस्य पर 1,481 रुपये 25 पैसे आते हैं। जिसे हम 365 दिन से बांट दें तो प्रति व्यक्ति पर प्रति दिन 4 रुपये 05 पैसे आते हैं।


समझने वाली बात यह है कि आज के दिन ऐसी कौन सी भोजन सामाग्री है जो 4 रुपये 05 पैसे में एक व्यक्ति को उपलब्ध होगी। तब आज यह योजना मजाक नहीं तो और क्या है। जाहिर है आज ज़रूरत है कि कार्य के दिन चार गुना हों या मजदूरी चार गुना हो और काम का आधार परिवार नहीं व्यक्ति आधारित हो।


मनरेगा में काम करते मजदूर

कई वजहों में शायद यह भी एक वजह है कि मनरेगा की योजनाओं में काम करने वाले मजदूरों में योजना के प्रति उदासीनता बढ़ रही है, जिसकी वजह से काम करने वाले मजदूरों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। ऐसे मजदूरों की सख्या पहले जहां प्रतिदिन आठ लाख थी, अब वह घटकर 3.5 लाख तक रह गयी है। पहले भी मजदूरों की संख्या कम हुई थी, फिर भी कम से कम पांच से छह लाख मजदूर काम कर रहे थे।


इस तरह मनरेगा में मानव दिवस सृजन की संख्या घट गयी है। इसका असर योजनाओं के साथ ही रोजगार पर भी पड़ रहा है। योजनाओं का क्रियान्वयन धीमा हो गया है। वहीं बड़ी संख्या में मजदूर दूसरे कामों में लग रहे हैं। यहां तक कि ग्रामीण मजदूरों का पलायन भी हो रहा है।


वहीं मनरेगा कर्मी बताते हैं कि जिन मजदूरों ने जो काम किया है, उनके चार माह का पैसा नहीं मिला है। दिसंबर 2021 का पैसा पहले से पेंडिंग था। इसके बाद जनवरी, फरवरी और मार्च 2022 का भी पैसा नहीं दिया गया है। पैसे के लिए कई बार मुख्यालय से संपर्क किया गया, लेकिन भारत सरकार से पैसा नहीं मिलने की बात कह कर हमेशा टाल दिया गया।


वहीं मजदूर लगातार मनरेगा कर्मियों पर मजदूरी भुगतान के लिए दबाव डालते रहे। मनरेगा कर्मी मजदूरों के इस तरह के दबाव नहीं झेल पा रहे हैं और गांवों में जाने से कतरा रहे हैं। जिसके कारण योजनाओं के क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न हो रही है।


पहले जहां मजदूर अपने गांव में ही मनरेगा का काम कर रहे थे, अब कहने के बाद भी वह इस काम में नहीं आ रहे हैं। परिवार के साथ बाजार में काम करने जा रहे हैं।


झारखण्ड राज्य मनरेगा कर्मचारी संघ के प्रदेश अध्यक्ष व मनरेगा कर्मी जान पीटर बागे कहते हैं कि अब तक मनरेगा का लाभ सीधे तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लोगों को मिलता रहा था क्योंकि अपने ही गांव में उन्हें रोज़गार मिल जाता था और जो दिहाड़ी मिलती रही है वो सीधे उनके खाते में जाती रही है। पर केंद्र सरकार के बजट में इस बार भारी गिरावट देखने को मिल रही है। जिससे कई ग्रामीण, रोजगार और योजनाओं से वंचित रह जाएंगे।


वे कहते हैं कि केंद्र सरकार की बेरुखी के चलते मनरेगा से लोगों का मन अब ऐसे भी हटने लगा है। नवंबर-दिसंबर 2021 और जनवरी-फरवरी-मार्च 2022 का मजदूरी का भुगतान आज तक मजदूरों को नहीं मिला है। कई क्षेत्रों में प्रति कूप निर्माण में लगभग 45 से 65 हज़ार रुपये तक मजदूरों का बकाया है। जबकि कूप बन के तैयार हैं।


मनरेगा में काम करते मजदूर

उसी तरह प्रधानमंत्री आवास निर्माण में मनरेगा से 95 मानव दिवस देने का प्रावधान है। आवास बन कर तैयार हैं और 95 मानव दिवस भी मस्टर रोल से दिये गये हैं, पर उसकी भी मजदूरी अभी तक मजदूरों के खाते में नहीं गई है। जिस कारण से लगातार इस वित्तीय वर्ष में कुल मानव दिवस में गिरावट देखने को मिल रही है।


वे आगे कहते हैं कि दूसरा कारण है मजदूरी दर का कम होना। राज्य में केंद्र सरकार के द्वारा मजदूरी दर मात्र 210 रुपये तय है। राज्य सरकार की ओर से अतिरिक्त 27 रुपये अंशदान देकर मजदूरी 237 रुपये दी जा रही है। जो यहां के बाजार दर से बहुत ही कम है। जिस कारण से भी लोगों का रुझान मनरेगा योजना के प्रति कम होता जा रहा है।


वहीं संविदा पर काम करने वाले मनरेगा कर्मियों को काम करते हुए 15 साल से ज्यादा हो जाने के बावजूद हालात दयनीय बनी हुई हैं। कम मानदेय के अलावा कोई सरकारी सुविधा नहीं है। मानदेय भी कई कई माह बाद मिलता है। कई बार हड़ताल और आंदोलन के माध्यम से सरकार के सामने अपनी मांगों को रखने का काम किया गया। बावज़ूद इसका कोई नतीजा नहीं निकला। अब जब मजदूरों की मज़दूरी बकाया है तो वे मनरेगा कर्मियों पर भुगतान का दबाव बना रहे हैं, जिसके कारण मनरेगा कर्मी भी तनाव में बने रहते हैं।


संविदा में कार्यरत मनरेगा कर्मियों का भविष्य हमेशा अंधकारमय रहता है। 24 घंटा भय के साये में कर्मियों का जीवन गुजर रहा है। अधिकारियों की मनमानी और दबाव के कारण रोजगार बचाने के लिये मनरेगा कर्मी हमेशा तनाव में रहते हैं। दूसरों की गलती का ठीकरा मनरेगा कर्मियों पर फोड़ा जाता है। इसी कारण कई मनरेगा कर्मियों की ब्रेन हेमरेज के कारण मृत्यु हो चुकी है। सड़क दुर्घटना में भी कई कर्मियों की मृत्यु हो चुकी है।


स्पष्ट है कि केंद्र की मोदी सरकार धीरे धीरे मनरेगा योजना को बुरी तरह से पंगु बना कर समाप्त करना चाहती है। शायद इसीलिए कि मनरेगा यूपीए सरकार की उपलब्धि है।


उल्लेखनीय है कि 2023-24 में मनरेगा के लिए आवंटित नगण्य बजट ने मोदी सरकार के मज़दूर विरोधी चेहरे को उजागर कर दिया है। यह पिछले 17 सालों में जीडीपी के अनुपात में शुरू के दो सालों को छोड़ दिया जाए तो यह सबसे कम बजट है। यह बजट पिछले साल के बजट से भी 33% कम है। एक ओर लगातार महंगाई में बढ़ोत्तरी हो रही है, वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार ग्रामीण मज़दूरों के रोज़गार की जीवन रेखा को खत्म करने पर तुली हुई है।


प्रखंड व ज़िलों में मनरेगा में व्यापक ठेकेदारी चल रही है। कहना ना होगा कि मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार को राजनैतिक व प्रशासनिक संरक्षण प्राप्त है।


मनरेगा की कम मज़दूरी दर, जो कि राज्य के न्यूनतम दर से बहुत कम है, भी सरकार की मज़दूर विरोधी मंशा को दर्शाती है। सरकार ने हाल ही में हाजिरी के लिए एक मोबाइल एप-आधारित व्यवस्था को अनिवार्य किया है, जिससे मज़दूरों के काम और भुगतान के अधिकार के उल्लंघन के साथ-साथ व्यापक परेशानी हो रही है।


पिछले कुछ सालों में मनरेगा को ऐसी तकनीक के जाल में फंसाया गया है कि मज़दूरों के लिए पारदर्शिता न के बराबर हो गयी है एवं स्थानीय प्रशासन की जवाबदेही भी खत्म हो गयी है।


मनरेगा में काम करते मजदूर

अगर हम मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार की बात करें तो पिछले वर्ष झारखण्ड के 1,118 पंचायतों में क्रियान्वित मनरेगा की 29,059 योजनाओं के सोशल आडिट में जो हालात सामने आए हैं, वो मनरेगा में व्याप्त एक बड़े भ्रष्टाचार का खुलासा करता है।


योजनाओं के सोशल आडिट में 36 योजनाओं को जेसीबी से कराये जाने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं।


कुल 1,59,608 मजदूरों के नाम से मस्टर रोल (हाजरी शीट) निकले गए थे उसमें सिर्फ 40,629 वास्तविक मजदूर (25%) ही कार्यरत पाए गए। शेष सारे फर्जी नाम के मस्टर रोल थे।


1787 मजदूर ऐसे मिले जिनका नाम मस्टर रोल में थे ही नहीं


85 योजनायें ऐसी मिलीं जिनमें कोई मस्टर रोल सृजित ही नहीं किये गए थे, परन्तु काम शुरू कर दिया गया था।


376 मजदूर ऐसे मिले जिनका जाब कार्ड बना ही नहीं था


पूर्व के वर्षों में भी सोशल ऑडिट के माध्यम से करीब 94 हजार विभिन्न तरह की शिकायतें दर्ज की जा चुकी हैं, जिसमें करीब 54 करोड़ राशि के गबन की पुष्टि हो चुकी है। उनपर भी सरकारी अधिकारी कार्रवाई करने से कतरा रहे हैं। राज्य भर में शिकायत निवारण प्रक्रिया पूरी तरह फेल है।


आज राज्य के 1.12 करोड़ मजदूरों की स्थिति बेहद ख़राब है। 69 लाख पंजीकृत परिवारों में से इस साल अभी तक मात्र 19% परिवारों अर्थात 14% मजदूरों को ही काम मिल सका है।


पिछले वर्ष मई 2022 से लागू नई तकनीक नेशनल मोबाइल मोनिटरिंग सिस्टम 20 से अधिक मजदूर कार्य करने वाली योजनाओं में अनिवार्य बना दिया गया है। इस नए तकनीकी प्रयोग के प्रभावों के आकलन के बिना ही अब जनवरी 2023 से सभी तरह की योजनाओं में इस सिस्टम को अनिवार्य बना दिया गया है। इस प्रणाली से बड़े पैमाने पर मनरेगा मजदूर, रोजगार और मजदूरी से वंचित होने का खतरा महसूस करने लगे हैं। क्योंकि झारखण्ड में विभागीय आदेशानुसार सिर्फ महिलाओं को ही मनरेगा मेट बनाया गया है।


जबकि एसटी, एससी, आदिम जनजाति महिलाओं के पास स्मार्टफोन की उपलब्धता नहीं के बराबर है। जिनके पास है भी उनमें तकनीकी ज्ञान का अभाव है और दूसरी तरफ इन्हें कोई समुचित प्रशिक्षण भी नहीं दिया जा रहा है। वहीं सर्वर त्रुटि और इंटरनेट ब्लैकआउट की समस्या सुदूर इलाकों में हमेशा बनी रहती है।


हाजिरी दर्ज करने में किसी तरह की त्रुटि होने पर उसका निराकरण सिर्फ जिला मुख्यालय के जिला कार्यक्रम समन्वयक (डीपीसी) के पास है और कुछ मामलों में नरेगा कमिश्नर कार्यालय को ही लॉनिग-इन पासवर्ड की सुविधा दी गई है।


ऐप की भाषा सिर्फ अंग्रेजी में नहीं बल्कि कई ऐसी भाषाओं में भी है जो अंग्रेजी जानने वालों के भी समझ से परे होती है। ऐसे में पूरी सम्भावना है कि मनरेगा के मानव दिवस में गिरावट आएगी और केंद्र सरकार को मनरेगा बजट आकार को घटाने का एक बहाना मिल जाएगा।


मनरेगा अधिनियम में योजनाओं के क्रियान्वयन पर कड़ी निगरानी, प्रत्येक 6 महीने में ग्राम सभाओं के माध्यम से सामाजिक संपरीक्षा, समवर्ती सामाजिक संपरीक्षा, ससमय मजदूरों का मजदूरी भुगतान, आम जनों तथा मजदूरों की शिकायतों पर समयबद्ध कार्रवाई जैसे प्रावधानों के बाद भी राज्य सरकार व केंद्र सरकार दोनों अपनी संवैधानिक जवाबदेही निभाने में विफल होती रही हैं।


बता दें कि राज्य में सोशल आडिट की प्रक्रिया अप्रैल 2022 से ही सरकार की निष्क्रियता से ठप्प पड़ी है। केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने भी झारखण्ड सोशल ऑडिट इकाई को आखिरी बार मार्च 2022 में आवंटन जारी किया था।


आज भी सोशल आडिट मद में राज्य सरकार का केंद्र सरकार पर करीब 7.00 करोड़ रुपये का आवंटन लंबित है। जिसके कारण अंकेक्षण में लगे कर्मियों में आई उदासिनता से सोशल आडिट की प्रक्रिया में रुकावट आएगी और केंद्र को राज्य का फण्ड रोकने का अतिरिक्त बहाना मिल जाएगा।


एक नजर देश के सभी राज्यों में केन्द्र सरकार द्वारा लागू मनरेगा मजदूरों की दैनिक मजदूरी



आंध्र प्रदेश- 257.00 रु, अरुणाचल प्रदेश- 216.00 रु, असम- 229.00 रु, बिहार- 210.00 रु, छत्तीसगढ- 204.00 रु, गोवा- 315.00 रु, गुजरात- 239.00 रु, हरियाणा- 331.00 रु, हिमाचल प्रदेश- गैर अनुसूचित क्षेत्र- 212.00 रु, अनुसूचित क्षेत्र- 266.00 रु, जम्मू कश्मीर- 227.00 रु, लद्दाख- 227.00 रु, झारखंड- 210.00 रु, कर्नाटक- 309.00 रु, केरल- 311.00 रु, मध्य प्रदेश- 204.00 रु, महाराष्ट्र- 256.00 रु, मणिपुर- 261.00 रु, मेघालय- 230.00 रु, मिजोरम- 233.00 रु, नागालैंड- 216.00 रु, ओडिशा- 222.00 रु,


पंजाब- 282.00 रु, राजस्थान- 231.00 रु, सिक्किम- 222.00 रु, सिक्किम (3 ग्राम पंचायतें जिनका नाम ज्ञानथांग, लाचुंग और लाचेन) 333.00 रु, तमिलनाडु- 281.00 रु, तेलंगाना- 257.00 रु, त्रिपुरा- 212.00 रु, उत्तर प्रदेश- 213.00 रु, उत्तराखंड- 212.00 रु, पश्चिम बंगाल- 223.00 रु, अण्डमान और निकोबार- अंडमान जिला- 292.00 रु एवं निकोबार जिला- 308.00 रु, दादरा और नागर हवेली तथा दमण और दीव- 278.00 रु, लक्षद्वीप- 284.00 रु एवं पुदुचेरी- 281.00 रु है।


बता दें कि मनरेगा योजना में प्रति दिन मजदूरी देश में सबसे अधिक सिक्किम के 3 ग्राम पंचायतों ज्ञानथांग, लाचुंग और लाचेन में 333.00 रुपये है। जबकि छत्तीसगढ और मध्य प्रदेश में सबसे कम मजदूरी प्रति दिन 204.00 रुपये है।


इन मजदूरी दरों, कार्य दिवस और परिवार आधारित जॉब कार्ड से आज यह समझने में कोई कठिनाई नहीं है कि आज की मंहगाई में कभी की महत्त्वाकांक्षी योजना मनरेगा मजदूरों के साथ मजाक नहीं तो और क्या है।

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