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51 शक्ति पीठो में से है एक कड़ा धाम, जहा शीतला मां करती है संक्रामक बीमारियों को ठीक


कौशाम्बी: जिले के कड़ा गंगा तट पर आदि शक्ति मां दुर्गा के शीतल स्वरूप का एक ऐसा मंदिर स्थित है। जो 1 हजार साल से ज्यादा पुराना है। भारत के 51 शक्ति पीठो में से एक शीतला मां कड़ा धाम की देवी मां को संक्रामक बीमारियों को ठीक करने और निःसन्तान दंपतियों को पुत्ररत्न प्रदान करने वाली देवी के रूप में जाना जाता है। यहां मां दुर्गा के 2 स्वरूपों के दर्शन होते हैं। पहला शक्ति यानी ऊर्जा का वह रूप जिसमें तमाम प्रकार की आसुरी शक्तियां जलकर नष्ट हो जाती है। दूसरा स्वच्छता सफाई और महामारी रूपी दानव नष्ट करने के लिए मां दुर्गा का शीतल स्वरूप।
यहां गिरा था देवी सती के दाहिने हाथ का पंजा...


स्कन्द पुराण के अनुसार कड़ा (जो पूर्व में करकोटक वन था) में देवी सती का दाहिना कर (पंजा) गिरा था। यह पंजा आज भी देवी की मूर्ति के आगे जल कुण्ड में स्थापित है। स्कन्द पुराण के अनुसार राजा दक्ष ने यज्ञ किया और उसमे भगवान महादेव (शिव) को नहीं पूछा।
इससे नाराज होकर देवी सती ने यज्ञ कुण्ड में अपनी आहुति दे दी थी। इसके बाद क्रोधित भगवान महादेव (शिव) सती के जले हुए शरीर को लेकर ब्रह्माण्ड में भरमान करना शुरू कर दिया।
 देवता शिव के इस रूप को देख भयभीत हो गए। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को काट दिया था। यहां पर देवी सती के शरीर के टुकड़े गिरे वह स्थान शक्ति पीठ बना।''
कड़ा (कारकोटक वन) में देवी का दाहिना कर (पंजा) गिरा था। इसलिए इसे कड़ा धाम भी कहा जाता है।
मां के शीतल स्वरूप का किया गया था आवाहन

यहां के पुजारी पंडित मदन लाल किंकर ने कहा, ''त्रिशूल नाम का एक राक्षस था। जो सांस छोड़ता था। जिस किसी पर भी उसकी सांस पढ़ती थी उसके पूरे शरीर में फफोले पड़ जाते थे।''
जिससे कारकोटक वन के आसपास के गांवों की जनता बहुत परेशान थी। इस संक्रामक बीमारी का किसी वैद्य के पास इलाज नहीं मिल पा रहा था। तब भक्तों ने शारदीय नवरात्र में आदिशक्ति दुर्गा के शीतल स्वरूप का सामूहिक आवाहन किया।''
जिसके बाद मां ने अपने वाहन गधे पर सवार होकर एक हाथ में खास तरह की घास से निर्मित कुश (झाड़ू ) से शीतल जल छिड़क पर अपने भक्तो के कष्टों का निवारण किया। इसी जल से शीतल जल को असुर त्रिशूल पर छिड़क पर उसका वध किया।''
 ''जिसके बाद शक्ति के इस स्वरुप को शीतला मां के रूप में जाना जाने लगा। इतना ही नहीं शीतला अष्टमी के पर्व को यहा संक्रामक रोग नियंत्रण पर्व के रूप में मनाते है।''

गधे की लीद के लेपन से ठीक हो जाता है चेचक का दाग
 शीतल महात्मा के जानकार महंत लालमणि ने क‍हा, ''प्राचीनकाल से ही शीतला माता का बहुत अधिक माहात्म्य रहा है। स्कंद पुराण में शीतला देवी शीतला का वाहन गर्दभ बताया है।''
 ''ये हाथों में कलश, सूप, मार्जन तथा नीम के पले धारण करती हैं। इन बातों का प्रतीकात्मक महत्व होता है। चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं।''
''नीम के पले फोडों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है अत: कलश का महत्व है। गधा यानी गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। यहां हर साल गधों का मेला भी लगता है। जिसमें देश के कोने-कोने से लोग आते हैं।''
धर्मराज युधिष्ठिर ने शीतला देवी मंदिर का कराया था द्वापर युग मे निर्माण
 कड़ा धाम के 15 किमी के दायरे में स्थित गांवों मे आज भी छोटी चेचक व बड़ी चेचक की बीमारी को छोटी या बड़ी माता कहा जाता है। मां शीतला पर यहां के लोगों की इतनी आस्था है कि लोग छोटी चेचक व बड़ी चेचक से प्रभावितरोगी के ऊपर जलहरी का जल डालते है तो रोगी ठीक हो जाता है।
 यहां लोगों का विश्वास है। जो श्रद्धालु भक्ति भावना से मां के दरबार में माथा टेकता है। उसे सबकुछ मिलता है। माना जाता है कि द्वापर युग में पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर अपने वनवास समय में कड़ा धाम देवी दर्शन के लिए आए।
 यहां उन्होंने गंगा के किनारे शीतलादेवी का मंदिर बनवाया और महाकालेश्वर शिवलिंग की स्थापना की। वर्तमान में मां शीतला देवी का मंदिर भव्य स्वरूप ले चुका है।
                                          जलहरी का भरना मां की प्रसन्नता का प्रतीक

 यहां हर वर्ष दोनों नवरात्रियों के अवसर में यहां बडा मेला लगता है। श्रद्धालु सुख, शान्ति एवं मनोकामनापूर्ण होने के लिए मां शीतला देवी के चरणो के समीप स्थित जलहरी कुण्ड को भरते है।
 चमत्कारिक बात यह है कि यदि कोई श्रद्धालु अहंकार के साथ दूध या गंगाजल से कुण्ड को भरना चाहे तो जलहरी नहीं भर सकता। जलहरी भर जाना देवी के प्रसन्न्ता का प्रतीक माना जाता है।
पूजन के दिन घर में नहीं जलता चूल्हा
 शीतला माता की पूजा के दिन घर में चूल्हा नहीं जलता है। आज भी लाखों लोग इस नियम का बड़ी आस्था के साथ पालन करते हैं।
शीतला माता की उपासना अधिकाशत: वसंत एवं ग्रीष्म ऋतु में होती है। शीतला (चेचक रोग) के संक्रमण का यही मुख्य समय होता है। इसलिए इनकी पूजा का विधान पूर्णत: सामयिक है।
शीतला अष्टमी पर होती है विशेष पूजा
चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ के कृष्ण पक्ष की अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होती है। इसलिए यह दिन शीतलाष्टमी के नाम से विख्यात है।
 शीतलाष्टमी के एक दिन पूर्व उन्हें भोग लगाने के लिए बासी खाने का भोग यानि बसौड़ा तैयार कर लिया जाता है।

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